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कविता

आकाश से झरता लावा

दिविक रमेश


राजनीति नहीं छोड़ती
अपनी मां-बहिन को भी
जैसे रही है कहावत
कि नहीं छोड़ते कई
अपने बाप को भी।

ताज्जुब है
नदी की बाढ़ की तरह
मान लिया जाता है सब जायज
और रह लिया जाता है शान्त।
थोड़ा-बहुत हाहाकार भी
बह लेता है
बाढ़ ही में।

यह कैसी कवायद है
कि आकाश से झरता रहता है लावा
और न फर्क पड़ता है
उगलती हुई पसीने की आग को
और न फर्क पड़ता है
राजनीति के गलियारों में
कैद पड़ी ढंडी आहों को।

यह कैसी स्वीकृति है
कि स्वीकृत होने लगती है नपुंसकता
एक समय विशेष में
खस्सी कर दिए गए एक खास प्रधानमंत्री की।
कि स्वीकृत होने लगती हैं
सत्ता विरोधियों की शिखण्डी हरकतें भी।

मोडे-संन्यासियों के इस देश में
दिशाएं मजबूर हैं
नाचने को वारांगनाओं सी
और धुत्त
बस पीट रहे हैं तालियाँ-वाम भी अवाम भी।

कहावत है
हमाम में होते हैं सब नंगे-
अपने भी पराए भी।

अब चरम पर है निरर्थकता
समुद्रों की, नदियों की
जाने
क्यों चाह रहा है मन
कि उम्मीद बची रहे बाकी
पोखरों में, तालाबों में
और एकान्त पड़ी नहरों में
झरनों में।

जाने क्यों
दिख रही है लौ सी जलती
हिमालय की बर्फों में।

डर है
कहीं अध्यात्म तो नहीं हो रहा हूं मैं!

हो भी जाऊं अध्यात्म
एक बार अगर जाग जाएं पत्ते वृक्षों के।
जाग जाएं अगर निरपेक्ष पड़ी वनस्पतियाँ।
जाग उठे अगर बांसों में सुप्त नाद।
अगर जगा सके भरोसा अस्पताल अपनी राहों में
जख्मी हावाओं का।

 


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